हर रोज़ की तरह सूरज अपनी किरणों के साथ धरती पर नई रोशनी बिखेर रहा था। चिड़ियां अपने सुरों में मिठास घोलती हुई चहचहा रही थीं, और ठंडी हवा तन-मन को अजीब सा सुकून और ताजगी दे रही थी। मोहल्ले के दूधवाले और अखबारवाले अपने रोज़मर्रा के काम में व्यस्त होकर गलियों से गुजर रहे थे। घरों में लोग नहाने के बाद पूजा-अर्चना में लगे हुए थे, और रसोईघर में चाय के प्यालों की खनक के साथ-साथ बर्तनों की हल्की आवाज़ें माहौल में गूंज रही थीं। ब्रेड-बटर और गरमागरम परांठों की खुशबू पूरे घर में फैलकर भूख जगाने का काम कर रही थी। पुरुष अपने-अपने कामकाजी दिन की तैयारियों में व्यस्त थे, और माएं दौड़-भाग कर बच्चों को स्कूल बस पकड़वाने की कोशिश में थीं। सब कुछ एकदम सामान्य और रोज़ की तरह चल रहा था। ऐसा लग रहा था कि किसी को इस बात का कोई अंदाज़ा नहीं था कि कहीं किसी की खुशहाल दुनिया पूरी तरह बिखर चुकी है।
मैं अपने कमरे की खिड़की के पास खड़ी थी, सामने वाले घर की ओर देख रही थी। मन में कई भाव उमड़ रहे थे, और आंखों से आंसू बह रहे थे, जिससे सब कुछ धुंधला लगने लगा। ऐसा लगा जैसे मेरी उदासी ने पूरे माहौल को घेर लिया हो।

दस साल पहले सहायक शिक्षिका के पद से रिटायर होने के बाद से ही घर की छत पर बना यह छोटा, हवादार कमरा मेरी अपनी जगह बन गया था। मैंने नौकरी मजबूरी में की थी, कभी आर्थिक ज़रूरतों की वजह से तो कभी पति और ससुराल के दबाव के कारण। मैं स्वभाव से अंतर्मुखी थी, जो बाहरी दुनिया से ज़्यादा अपनी कल्पनाओं की दुनिया में खुश रहती। मेरे विचार और सपने मुझे लेखन की दुनिया की ओर खींच लाए।
अपनी कहानियों और लेखों के छपने से मुझे गहरी खुशी मिलती, लेकिन एक आम महिला की तरह मुझे भी पति, सास-ससुर, देवर-ननद और अपने दोनों बच्चों की देखभाल करनी पड़ती थी। लेखन के लिए समय कम मिलता, पर मैं किसी तरह निकाल ही लेती। अपनी छपी रचनाओं की खुशी मैं किसी से साझा नहीं करती थी, लेकिन पति का बिना शब्दों का समर्थन मेरा सहारा था। धीरे-धीरे, मैं अपनी सारी ज़िम्मेदारियां निभाती चली गई।
मैं दुनियादारी को तटस्थ भाव से निभाती रही, लेकिन पति की मृत्यु के गहरे आघात ने मुझे सांसारिक जीवन से दूर कर दिया। सालों तक यंत्रवत नौकरी करती रही और फिर एक दिन सेवानिवृत्त हो गई। उसी शाम मैंने अपनी बहू को बुलाकर आलमारी और बैंक लॉकर की चाभियां, गहने और कीमती साड़ियां सौंप दीं। हमारा छोटा-सा बंगला हर सुख-सुविधा से भरा था, लेकिन अब मैं पूरी तरह धन-दौलत और सांसारिकता से दूर हो चुकी थी।
मैंने छत पर एक अकेला कमरा बनवाया और वहीं रहने लगी। कमरे में सिर्फ एक तख्त, पतला गद्दा, चादर, बड़ी खिड़की के पास मेरी पसंदीदा स्टडी टेबल और कुर्सी, एक बक्सा (जिसमें कुछ गिनी-चुनी साड़ियां और तौलिए रखे थे), एक टेबल लैम्प और एक पंखा रखा। बस, इतना ही सामान था।
मेरी लिखने-पढ़ने की मेज़ ही मेरी सबसे पसंदीदा जगह थी, जहां मेरी कल्पनाएं हर दिन नए रंगों में उड़ान भरतीं। मैं उन्हें सफेद कागज पर शब्दों का रूप देकर खुद को दुनिया की सबसे खुश इंसान महसूस करती। पचहत्तर साल की उम्र में, जब मैं मोह-माया से दूर अपनी रचनाओं में खोई हुई थी, अचानक मेरी ज़िंदगी में एक नया मोड़ आया। मैं किसी से जुड़ गई और उसके मोह में बंध गई।
उस दिन सुबह स्नान करके बैठी ही थी कि अचानक शंख, उलूक-ध्वनि और हंसी की आवाज़ सुनकर ध्यान भंग हुआ। देखा, सामने वाले घर का बड़ा बेटा शादी के बाद पत्नी के साथ घर में प्रवेश कर रहा था। दूल्हा धोती-कुर्ता और सिर पर टोपोर लगाए हुए था, और उसके साथ लाल बनारसी साड़ी में सजी, सिर झुकाए खड़ी उसकी दुल्हन। उसके सिर पर सफेद मुकुट था, चेहरा विदाई के आँसुओं से भीगा हुआ, थका-थका-सा, लेकिन बेहद सुंदर। लड़का मज़ाक के मूड में था। मां ने आरती उतारने और बहनों से रस्म अदायगी के बाद जोड़े को घर में प्रवेश की इजाज़त दी। यह एक बंगाली ब्राह्मण परिवार था।
अगले दिन बहूभोज के आयोजन में नई दुल्हन ने हरे रंग की सुनहरे बॉर्डर वाली तांत की साड़ी पहनी थी। वह गहनों से सजी हुई थी, बाल पूरी तरह खुले थे और घूंघट बस नाम मात्र का था। सबसे पहले पति ने उसकी साड़ी, सिंदूर, आल्ता और अन्य सामग्री आंचल में रखी और उसे जीवनभर वस्त्र और भोजन की जिम्मेदारी का वचन दिया। इसके बाद बहू ने एक व्यंजन सबकी थाली में परोसा और भोज शुरू हुआ। माहौल बेहद खुशनुमा था।
यह सब उनके घर के आंगन में हो रहा था, जो मेरी खिड़की से साफ दिखाई दे रहा था। तभी मुझे ध्यान आया कि मैं कल से लगातार इस घर की ओर देख रही हूँ। जब भी लिखने या पढ़ने के लिए बैठती, नजरें अनायास ही उस घर पर चली जातीं। दुबली-पतली, बड़ी-बड़ी आंखों वाली, घनी पलकें, सुतवां नाक और पतले होंठों वाली वह सांवली लड़की मेरे मन में बस गई थी। हर दिन उसे और उसके कामों को देखने का मोह मैं छोड़ नहीं पाती थी।
अतिथियों के विदा होने के बाद वह नई-नवेली दुल्हन, जो छुईमुई-सी लग रही थी, जल्द ही एक जिम्मेदार बहू बन गई। वह झाड़ू-पोछा लगाती, पानी भरती, सास के साथ खाना बनवाती और ट्रे में चाय-नाश्ता सजाकर सबको पहुंचाती। उसका पति और देवर दिखने में एक जैसे थे। ननद और देवर उसके अच्छे दोस्त बन गए थे। उनके साथ ही वह बाज़ार जाती, पिकनिक पर जाती और बागवानी करती।
वह घर की लाड़ली बहू थी। उसका पति उसे बेहद प्यार करता था। हर शाम छह बजे, वह छत पर जाकर उसके लौटने का इंतजार करती। सात बजे जैसे ही मोटरसाइकिल की आवाज सुनती, वह खुश होकर नीचे भागती। आंखों में प्यार और चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए गेट खोलती। पति उसे नज़रों से प्यार करता, और दोनों अंदर चले जाते। परिवार के साथ हंसी-खुशी वक्त बिताते, साथ खाते-पीते। कभी-कभी बहू पति के साथ मोटरसाइकिल पर घूमने जाती, तो ननद उसे मुस्कुराकर विदा करती।
रात होते ही घर की खिड़कियों और दरवाजों पर पर्दे लहराते। मैं अपने कमरे में बैठी उनकी मोहब्बत की गर्माहट महसूस करती। उस घर में ज़िंदगी की एक अलग चमक थी, जिसने मुझे भी नई ऊर्जा दे दी थी। उन दिनों मैंने कई प्रेम कहानियां लिखीं। मेरे पाठक और प्रकाशक हैरान थे कि इस उम्र में मुझमें ऐसा कौन-सा नया जज्बा जागा था, जो इतनी सच्ची और दिल छू लेने वाली कहानियां लिख रही थी। पर उन्हें क्या पता कि मैं उस बहू से, जिसका नाम भी मुझे नहीं पता था, एक अनकहा रिश्ता जोड़ चुकी थी।
फिर वक्त बदला। देवर को नौकरी के लिए बाहर जाना पड़ा। ननद की भी शादी हो गई। अब घर में सिर्फ दो जोड़े बचे थे—एक वृद्ध दंपत्ति और दूसरा जोड़ा, जो जीवन और प्यार से भरा हुआ था। माता-पिता उन्हें पूरा सपोर्ट देते और उनकी खुशियों में अपनी खुशी ढूंढते। शायद वे अब पोते-पोतियों की उम्मीद करने लगे थे। सबकुछ ठीक चल रहा था, जब अचानक उस परिवार पर एक बड़ी विपत्ति का साया आ गया।
मैं पूरी रात सो नहीं सकी। शाम को बहू ने बताया कि सामने वाले घर के बड़े बेटे की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। उस घर से मां की चीखें, पिता की खामोश सिसकियां और बहू का विलाप मेरे कमरे तक सुनाई दे रहा था। पूरा माहौल दर्द और गम से भरा हुआ था।
रातभर उस घर के लोग पोस्टमार्टम की प्रक्रिया में लगे रहे। सुबह होते ही सफेद कपड़े में लिपटा हुआ वह शरीर घर के आंगन में लाया गया। वही शरीर, जिसे मां ने नौ महीने कोख में रखा, प्यार से पाला और बड़े अरमानों से बड़ा किया। वही बेटा, जो पिता के बुढ़ापे का सहारा था, बहन-भाई का दुलारा और पत्नी का सब कुछ था। अब वह निर्जीव शरीर आंगन में पड़ा था।
पत्नी बदहवास होकर शव को देखे जा रही थी। उसकी ननद उसे संभालने की कोशिश कर रही थी, लेकिन दर्द का सागर किसी को संभलने नहीं दे रहा था। तभी सास की आवाज गूंजी, “इसी के लिए मेरा बेटा कश्मीर जाने का टिकट कटवाने गया था और अपनी जिंदगी का टिकट कटवा आया।”
“मां, ऐसा मत कहो,” छोटे बेटे ने विरोध किया, पर सास का गुस्सा थम नहीं रहा था। “मैं कैसे चुप रहूं? इसे नौ महीने कोख में रखा, बित्तेभर का था, छह फुट का जवान बना दिया। और जिसे सौंपा, वही इसे खा गई। मैंने इसे जन्म देने की पीड़ा सही, अब इसे खोने का दुख कैसे सहूं?” कहते-कहते मां जमीन पर गिर पड़ी, दर्द और गुस्सा सब कुछ तोड़ रहा था।
मां के विलाप ने बहू को जैसे पूरी तरह से निष्प्राण कर दिया। उसने न तो आंसू बहाए, न कोई शब्द बोले। वह बस निःशब्द होकर एक कोने में पड़ी रही, जैसे जीवन से हर भावना समाप्त हो चुकी हो। अर्थी उठने तक वह ऐसे ही स्थिर रही, जैसे किसी मूर्ति में तब्दील हो गई हो। घर अचानक वीरान हो गया, जैसे वहां पहले कभी कोई जीवन ही नहीं था।
कुछ समय बीतने पर, सबसे पहले ननद ने घर छोड़ दिया, फिर देवर भी अपने रास्ते चला गया। अब उस बड़े घर में केवल तीन लोग बचे थे, लेकिन वे भी अपने-अपने दर्द और विचारों में इस कदर खोए हुए थे कि एक-दूसरे की उपस्थिति महसूस ही नहीं होती थी। घर की दीवारें जैसे खामोशी में डूब गई थीं। कभी-कभार इस सन्नाटे को मां के दर्द भरे रोने की आवाज़ या बहू की बड़बड़ाहट तोड़ देती थी। लेकिन उनकी आवाज़ कुछ ही पलों में फिर शांत हो जाती, और दुबारा वही गहरी खामोशी पूरे घर पर छा जाती।
बहू के कमरे में सब कुछ वैसा ही था—लहराते पर्दे, सुरमई रातें, ठंडी हवा। लेकिन विशाल पलंग के कोने में पड़े खालीपन ने उसे अधूरा कर दिया था। वह उस खाली जगह पर हाथ रखकर लेटी रहती, सूखी आंखों और बंद होठों के साथ।
मैं, जो अपनी कहानियों के पात्रों को अपनी मर्ज़ी से चलाती थी, इस घर के पात्रों के दर्द से बंध गई थी। लेकिन इन पात्रों का रचयिता मैं नहीं थी। अगर कहानी मेरी होती, तो शायद कुछ बदल देती। पर यहां तो इनकी डोर किसी और के हाथ में थी।
अचानक मेरे कमरे का दरवाज़ा खड़का, और मेरी बहू तेज़ क़दमों से अंदर आई। उसकी आंखों में चिंता साफ झलक रही थी। उसने कहा, “अपने ख़ुराक की दो रोटियां भी आप लौटा दे रही हैं, ऐसा तो बिल्कुल नहीं चलेगा। चलिए, नीचे चल कर हमारे साथ रहिए। कम से कम हमारी आंखों के सामने तो रहेंगी।” मैंने उसकी बात को टालते हुए कहा, “मेरी चिंता छोड़, यह बता कि सामनेवाले घर की बहू के क्या हाल हैं?” वह गहरी सांस लेते हुए बोली, “अब उस बेचारी के क्या हाल होंगे? पति की मृत्यु के आघात ने उसे पत्थर बना दिया है। वह बस एक ही जगह पड़ी रहती है। उसकी मां, जो पुत्र के ग़म में लगभग पागल हो चुकी है, उसे ही इस त्रासदी का कारण ठहराती है।”
मैं यह सुनकर उदास हो गई। एक पल को मन भारी हो गया, लेकिन फिर मैंने उसे दिलासा देते हुए कहा, “ठीक है, मैं खाना ठीक से खा लिया करूंगी।” मेरे आश्वासन के बाद वह थोड़ी राहत महसूस करते हुए चली गई। लेकिन मेरे मन में उस लाचार युवती की पीड़ा गूंजती रही। क्या उसके जीवन का ऐसा दुखद अंत ही लिखा है? नहीं, यह सोचकर मेरा दिल नहीं माना। मैं धैर्यपूर्वक ईश्वर के अगले क़दम की प्रतीक्षा करती रही। इस बीच, मेरा कल्पनाशील मस्तिष्क उसके भविष्य की कहानी रचने लगा। क्या यह कथा विधाता के आदेश से मेल खाती होगी?
कुछ दिनों बाद पता चला कि बहू का देवर आया है। वह हू-ब-हू उसके दिवंगत पति जैसा दिखता था। उसे देखते ही बहू अचानक दहाड़ें मारकर रो पड़ी। महीनों तक जो स्त्री बुत बनी रही थी, अब उसके आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। यह भावनाओं का विस्फोट जैसे उसे भीतर से झकझोर गया। लेकिन शायद यही आंसू उसे गहरे आघात से उबरने का अवसर दे रहे थे। धीरे-धीरे वह अपनी सामान्य स्थिति में लौटने का प्रयास करने लगी, जैसे जीवन फिर से उसे एक नई राह दिखाने लगा हो।
मेरे दिन का अधिकतर हिस्सा उसे देखते हुए ही बीतता। शायद ईश्वर ने उसके लिए भी कुछ सोचा होगा। उसके नियम सख्त हो सकते हैं, लेकिन अन्यायपूर्ण नहीं। अब मैं जितनी भी कहानियां लिखती, उनका अंत हमेशा दुखद होता। मेरी कलम चलती तो थी, पर उससे निकलने वाले शब्द सिर्फ दर्द ही बयां करते।
उस दिन मेरे सामने ब्रेड के तीन स्लाइस, मिठाई और चाय रखी थी। मैं चाय की घूंट ले रही थी, लेकिन खाने का मन नहीं हो रहा था। तभी मेरी नजर सामने वाले घर पर पड़ी। घर की बहू हल्की साड़ी पहने, बैग लिए बाहर निकली। जब वह ऑटो में बैठ रही थी, तो पीछे खड़ी उसकी ननद ने मुस्कुराते हुए कहा, “भाभी, नौकरी के पहले दिन की शुभकामनाएं!”
बहू ने मुस्कुराने की कोशिश की, लेकिन उसकी मुस्कान अधूरी रह गई। ऑटो आगे बढ़ गया।
ओह! तो आखिरकार उसे नौकरी मिल ही गई। संभवतः यह नौकरी उसे उसके पति की जगह पर मिली होगी। अब वह घर से बाहर जाएगी, नए लोगों से मिलेगी और अपने रोजमर्रा के जीवन में कुछ बदलाव महसूस करेगी। इससे उसका मन भी थोड़ा हल्का और खुशहाल हो सकेगा। अक्सर ऐसा होता है कि जिम्मेदारियां हमें व्यक्तिगत दुखों और तकलीफों से उबरने का एक जरिया प्रदान करती हैं। मैंने मन ही मन यही सोचते हुए राहत महसूस की।
मेरे अंदर अचानक ऊर्जा सी भर गई। मैंने जल्दी से नाश्ता खत्म किया और ऊपर से आवाज लगाई, “बहू! एक कप चाय और मिलेगी?”
“क्यों नहीं मम्मी, अभी लाई!” बहू ने नीचे से ही जवाब दिया।
मां के एक इशारे पर वह तुरंत तैयार हो गई। दो मिनट में चाय लेकर हाज़िर थी। मैं गर्म चाय की चुस्कियों के साथ सोच में डूब गई। हर दिन सामनेवाली बहू को ऑफ़िस जाते देखना मेरे लिए एक खुशी बन गया था। उसमें धीरे-धीरे बदलाव दिखने लगा था। अब वह साधारण साड़ियों की जगह रंग-बिरंगी और फूलों वाली साड़ियां पहनने लगी थी। हल्का मेकअप, स्टाइलिश जूड़ा, और सुंदर सैंडिलें उसकी खुशहाल जिंदगी का सबूत दे रही थीं।
समय के साथ उसके ज़ख़्म भरने लगे थे। वह अब ननद और देवर के साथ हंसने-बोलने लगी थी। सबसे सुखद क्षण वह था, जब उसकी सास उसे टिफ़िन थमाकर मुस्कुराते हुए विदा करती थी। उसके पति की मृत्यु के बाद उसकी हालत देखकर मेरा दिल भी टूट गया था। उसकी पीड़ा को देखकर लगता था, जैसे मेरी अपनी ज़िंदगी भी ठहर गई हो। लेकिन आज, उसे ख़ुश देखकर मेरे दिल को सुकून मिला।
मैंने सोचा, जैसे मैं अपनी कहानियों के पात्रों को अपनी मर्ज़ी से बदल देती हूं, वैसे ही शायद ईश्वर भी हमारे जीवन में बदलाव करता होगा। लेकिन अगर वह मेरी कहानी की पात्र होती, तो मैं उसका पुनर्विवाह करवाती। उसकी गोद में एक मासूम बच्चा होता, जिसकी किलकारियां उसके जीवन में नई रोशनी भर देतीं।
‘अब और क्या चाहिए तुझे?’ मेरे भीतर की आवाज़ ने मुझसे सवाल किया। ‘देख, वह अब मुस्कुरा रही है। उसे आत्मनिर्भर बना दिया गया है। जो लोग उसे ताने देते थे, अब उसकी तारीफ़ करते हैं। क्या यह काफी नहीं है?’
लेकिन फिर मेरे दिल ने दूसरी बात कही, ‘वह दूसरों के लिए मुस्कुराती है, पर अपने लिए कहां? रात को अकेले में वह शायद अभी भी सिसकती होगी। क्या यह बदलाव काफी है? नहीं, उसे और भी सुख चाहिए। हे ईश्वर! उसके जीवन में और भी उजाला भर दे, जल्दी कर। मेरे पास भी अब ज़्यादा वक़्त नहीं बचा है।’ मैंने प्रार्थना करते हुए हाथ जोड़ लिए।
वह नवरात्रि का दूसरा दिन था। मैं यूं ही बैठी थी, जब अचानक उलूक-ध्वनि और शंखनाद ने मुझे चौका दिया। मैं तेजी से खिड़की की ओर भागी, सोचते हुए कि शायद मेरी प्रार्थना सुन ली गई। लेकिन यह क्या! वह तो उसका देवर था, दूल्हे के वेश में। उसके साथ गुलाबी जोड़े में उसकी पत्नी खड़ी थी। मेरे मन में अजीब-सी उदासी छा गई। विधवा भाभी वहां नहीं थी, शायद अपशकुन के डर से। आस-पास ननद-ननदोई, बच्चे, सास-ससुर, सब प्रसन्न मुद्रा में खड़े थे।
मैंने सोचा, वह कहीं छिपकर खड़ी होगी। मेरी आंखें उसे ढूंढने लगीं। तभी मेरी नजर गई और मेरी सांसें तेज हो गईं। अरे! मैं कितनी मूर्ख थी। सामने खड़ी दुल्हन को पहचान नहीं पाई। वह और कोई नहीं, वही थी। उसकी सूनी मांग अब सिंदूर से भर चुकी थी। वैधव्य के सफेद कपड़े अब चमकीले रंगों में बदल गए थे। वह वीरान दुनिया फिर से आबाद हो गई थी। टूटे हुए दिल जुड़ने लगे थे, और उम्मीदें फिर से जगमगाने लगी थीं।
मैं बेहद खुश थी, लेकिन बाकी दुनिया की स्थिति वैसी ही थी। कोई किसी से मतलब नहीं रखता था। सब अपने-अपने काम में व्यस्त थे। लेकिन आज सूरज की किरणें ज्यादा चमकीली लग रही थीं। चिड़ियों का चहचहाना जैसे जीवन का संगीत बन गया था।
सामनेवाले घर की बहू को शायद यह एहसास भी नहीं था कि उसकी खुशी में कोई और भी दिल से शामिल था। उसी घर के ऊपर वाले कमरे में एक वृद्ध स्त्री अपने मन में एक अनकही खुशी लिए झूम रही थी। आज उसे अपने जोड़ों के दर्द का कोई एहसास नहीं था, और उसकी सांसें भी पूरी तरह से सामान्य थीं। वह अपनी बहू से मिठाई मांगने की योजना बना रही थी, जैसे यह खुशी का अवसर हो। उसकी लेखनी में एक नई ऊर्जा का संचार हो चुका था। उसके शब्द अब फिर से प्रेम, रिश्तों और जीवन के गहरे अर्थों को गढ़ने की तैयारी में थे। उसके भीतर एक नई दुनिया आकार ले रही थी, जहां स्त्री और पुरुष के बीच के रिश्ते अपनी प्राचीन गरिमा और आधुनिकता के नए आयामों के साथ खिलखिला रहे थे।